Skip to main content

Posts

Showing posts from 2014

एक बस दिल में अब यही ख्याल आता है

कूथता हूं कराहता रहता हूं खुद को शरापता रहता हूं दिल मेरा मुझको लानतें भेजता रहता है बरामदे में पड़ा किसी बूढ़े सा खांसता रहता है जबकि ये जानता हूं कि लिख सकना अब बस अपने लिए है ये एक हस्तमैथुन करने की आदत सी है दिन निकलते रहते हैं बोझ बढ़ता जाता है  कोफ्त पलता जाता है खुद पर शक बढ़ता जाता है  न लिख पाना हस्तमैथुन न कर पाने से भी ज्यादा बड़ी खीझ है हां, पहले लगता था एक नदी भर रो सकता हूं  सबका और किसी एक का भी हो सकता हूं आज लगता है मेरी आंखें एक नदी भर सोख सकती है एहसास से बालातर हूं मैं सबसे बेखबर हूं आज न किसी का रहगुज़र और न किसी का रहबर हूं रात आ ही जाती है दिन भी हो ही जाते हैं कैलेण्डर पर साल महीनों के पन्ने बदल ही जाते हैं मगर दिल है कि मेरा पत्थर हुआ जाता है बेग़ैरत, खुदगर्ज और कमतर हुआ जाता है राह आगे अब न कोई दिखाई देती है मुझको मेरी ही रूलाई नहीं सुनाई देती है  वक्त की यह कैसी व्यंजना है मैं जो भी करना चाहूं कब मना है पांव बढाता हूं न पीछे खैंच पाता हूं  अब तो करूं या न करूं ये भी न सोचता हूं ज़िंदगी उधार की लगती

दो कौड़ी के दो ड्राफ्ट ख्याल

हालांकि मुझे रेखागणित में कभी दिलचस्पी नहीं रही लेकिन फिर भी बस्ते में एक कम्पास बॉक्स का रहना लाज़मी था। यह अनुशासन के लिए नहीं था क्योंकि मुझे कभी उसकी फिकर ही नहीं रही अलबत्ता कम्पास बॉक्स के अंदर एक तह मोटे गत्ते का बिछाकर तब के गुप्त कोड, तब के मासूम लव लेटर जिसमें बहुत रोने-रूलाने और कसमों वादों के बाद एक चुम्मी पर आकर बात रूकती थी। और तुर्रा ये कि तब चुंबन के आगे कुछ नहीं जानते थे। सोच नहीं चलती थी। और अब..... चुंबन से आगे ही सोचते हैं। उससे कम सोच नहीं पाते।  तब कम्पास बस्ते का सबसे कीमती हिस्सा होता था क्योंकि कई बार इसमें नेपाली, भूटानी, बांग्लादेशी टका और सिक्के होते थे जिनका कोई इस्तेमाल नहीं था लेकिन जाने क्या था उस उम्र में कि इसे देखने भर से दिल को तसल्ली मिलती थी। उन करेंसी पर वो अनचीन्हे अक्षर, अपने देश की मुद्रा से अलग तरह के रंग, वे डाक-टिकटें.... उफ्फ वो उम्र जब कोई मुहावरे में कहता था-दिल्ली बहुत दूर है। तो पलटकर पूछ बैठते थे- कितने प्रकाशवर्ष दूर!  *** मेटरलिस्टिक मैं कभी नहीं रहा। शायद यही वजह है कि शहर में ये चीज़ें मुझे जरूरत के बाद बोझा लगने

Hold to record. Send to release.

बाहर बारिश है।  मैं एक रेस्तरां में अपने बॉस के साथ बैठा हूं। मेरे सामने चार लड़कियां बैठी हैं। एक का मेरी नज़रों से संवाद कायम हो चुका है। बॉस ने यह भांप लिया है। इसलिए मुझे अब चार जोड़ी नज़रों को संभालना है। मैं जुकाम में हॉट कॉर्न एंड सॉर सूप पी रहा हूं। उनसे मिलती नज़र अब परिचित होने को है। वो मेरी ओर देख कर गर्दन घुमाती है और अपनी बाकी तीन सहेलियों में घुलने की कोशिश करती है। कई बार रेस्तरां का आकर्षण चाय की प्याली में आया सुगर का वो टुकड़ा होता है तो चाय में थोड़ा घुल कर भी थोड़ा सा बच जाता है। इसके आगे वो घुलने से इंकार कर देता है। वो अब अपने कपड़े बार बार ठीक कर रही है। कभी कॉलर को खींचती है कभी शर्ट के नीचे का दोनों प्लेट मिलाकर नीचे खींचती है। इससे उसके दोनों ओर के बटनों के बीच की फांक सिल जाती है। हम हल्के परिचय के बाद भी थोड़े असहज हैं।  बिल आता है। बॉस पे करते हैं। मैं अपनी मोबाइल समेटता हूं। नज़र एक बोसा। आंखों से बाय कहता हूं लेकिन पलकें इसे संभाल लेती हैं। एक आकर्षण का पटाक्षेप होता है। बाहर बारिश अब भी है लेकिन जाने क्या बरस रहा है....

वो शहर में है। मैं उसकी गुरुता में....

ये एक अजीब सा दिन है। हैरानी नहीं कि साल के कुछ दिन अजीब से होते हैं। कभी कोप भवन में घुसकर बिला वजह ज़ार-ज़ार रोने का दिन होता है। कभी बिना मतलब यहां वहां घूमने का। कभी सारी नैतिकता अनैतिकताओं का चोला उतारकर किसी के साथ कुछ भी कर लेने का, कभी कूट कर इस तरह मालिश करवाने का कि बदन का रोआं रोआं रूई के फाहे सी हवा में तैरते हुए रूक-रूक कर ज़मीं की तरफ आए। कभी बारिश में गलथ कर भीगने के बाद एकदम जमी हुई शिकंजी पीने का, फिर भी गीले कपड़े पहने रहने का और चिकन सूप छोड़कर आइसक्रीम खाने का।  आज का दिन अजीब, कुछ अजीब वजहों से है। वो सुबह से ही मेरे शहर में है। एक मीटिंग के सिलसिले में आई हुई। मैं उसके ख्याल में गुम हूं। अब तक टेलीफोन पर एक दिलकश आवाज़ जो कई बार दृश्य में बदली है। जिसकी रूक-रूक कर बोलने में कई बार उसका परेशान होना उभरा है। जिससे मुझे उसके माथे पर पड़ रहे बल का पता चला। कभी मेरी एक चुंबन की इल्तज़ा को जिसने इग्नोर करते हुए अपनी लट झटकी है। कभी किसी बात में जिसकी बहुत लाड़ था। आधी रात किसी लम्हें में कमज़ोर होकर जिसने मेरी बाहों पर अपना सर रखा है। कभी बहुत ठहर ठहर कर, सम

कलम का हुस्न

लिखने-पढ़ने संबंधी सामग्री को लेकर मैं ज़रा सीनिकल हूं। हर कुछ दिन पर स्टेशनरी के दुकानों वाली गली के चक्कर लगा आता हूं। हर दुकान में झांक लेता हूं। दुकानदार अब पहचानने लगा है। मेले में एक बच्चा जैसे चकरी, घिरनी, बरफ के रंगीन गोले और लाल शरबत की ओर जैसे आकर्षित होता है वैसे ही मैं स्टेशनरी की दुकान में लटके रंग बिरंगे फ्लैग्स्, मोटे पन्नों वाली डायरी, विभिन्न शेड्स के इंक, कैंची, फाइल कवर, स्टेपलर, रबड़, टैग, पिन, स्केच पेन, हाईलाइटर, प्लास्टिक पिन, मार्कर, ग्लू स्टिक (नॉन टॉक्सिक), स्टिक स्लिप, एच बी पेंसिल, कंपास, लंबे आकार के निब वाली कलम, स्केल, चॉक, डस्टर, बॉल पेन, चित्रकारी में रंग भरने के लिए अलग अलग रंग की शीशी, स्ट्रोक ब्रश, स्टॉम्प, लिफाफे, स्लैम बुक, र्स्पाकल पेन वगैरह की ओर खिंचता हूं। पंखे के नीचे किसी स्पाईलर बाइंडिंग किए हुए स्क्रिप्ट के अमुक अमुक पेज़ पर लगे ये रंगीन फ्लैग जब हवा में फड़फड़ाती है तो लगता है प्यार करने के दौरान अचानक बज उठे किसी फोन के दौरान कोई तरूणी अपने आशिक की कमीज़ के गिरेबान से खेल रही हो। कमीज़ के कॉलरों और बटनों पर उसकी उंगलियों की वो सरसर

विदाई का रोना

Symbolic Picture अंजन दीदी उम्र में मुझसे बहुत बड़ी होते हुए भी मेरी पक्की दोस्त थी। सुपारी खाने की शौकीन थी सो इसके बायस उसके दांतों में कस्से लगे हुए थे। हंसती तो चव्वे में लगे कस्से दिखाई देते। हर दो-चार दिन पर सरौते से एक कटोरी सुपारी काटती। मैं कई बार उससे कहता- एकदम ठकुराइन लगती हो। रौबदार जैसी। मेरी मां और उसमें भाभी-ननद का रिश्ता होने से एक दूसरे से छेड़छाड़ और आंचलिक गालियों का लेन देन होता रहता था। खासकर दीदी जो शुरू से गांव में रहने के कारण खांटी पकी हुई थी। वो मेरी मां को दृश्यात्मकता भरे गालियों से नहला देती। गालियां देने के उस मकाम पर मेरी मां भी उसके आगे नतमस्तक हो जाती। उसकी बेसुरी आवाज़ में वे आंचलिक गालियां और भी भद्दी हो जाती। ये मुझे बड़ा नागवार गुज़रता। एक बार मैंने दीदी से कहा भी कि मेरे पिताजी यानि अपने भैया, दादी के सामने तो तुम गाय बनी रहती हो लेकिन अकेले में ऐसी गंदी गंदी गालियां! उसने अपनी दोनों बांहें मेरे गले में डाल दिया। कुछ पल अपनी लाड़भरी आंखों से मुझे मुस्कुराते हुए घूरा। फिर कहा - शहर में रहने वाले मेरे बहुत पढ़निहार और अच्छे बच्चे! गालियों स

B. last seen yesterday at 10:22 PM

मैं उसके बारे में जितना सोचती हूं उसकी होती जाती हूं। एक उम्र के बाद खूबसूरती मायने नहीं रखती। पहचान वालों की मुस्कुराहट, मोटे लोगों के किसी खास पर उसकी अपनी खास मौलिक प्रतिक्रिया, फलाने का संशय, चिलाने का चिंताग्रस्त होकर घूमना, मीता का अनजाने में सीटी बजा उठना, किसी काले के आंखों की चमक, किसी गोरे की माथे की सिलवट, गंजे का खिखिलाकर हंसना, बूढ़े की भलमनसाहत दिल को भली लगने लगती है। कुछ के सीने के बाल याद रह जाते हैं, कुछ की बेसुरी आवाज़ भी मन को हांट करती है। कुछ के मेकिंग लव के दौरान बने क्षण याद रह जाते हैं। कुछ के जुबान से निकला शब्द सहलाते हुए से लगते हैं, कुछ की आवाज़ ही आराम दे जाती है।  मुझे उसके प्यार करने का तरीका बहुत पसंद है। यह सच है कि वह मुझे पसंद करता है लेकिन एक स्त्री होने के नाते जाने अनजाने मेरा सिक्थ सेंस मुझे यह भी इंगित करता है कि उसकी यह चाहना मेरे शरीर के कुछ खास अंगों के प्रति ज्यादा है। वह मेरे गोरे रंग को लेकर अक्सर हैरतजदा रहता है। हम जब मिलते हैं, मेरा मतलब हमारा जब कभी भी बाहर मिलना होता है, कनॉट प्लेस के के एफ सी में, हौज खास के बरिस्ता में

'शीर्ष'क आने तक गया थक

नए कमरे की बाथरूम की दीवार पर बहुत सारी बिंदियां सटी हैं। कंधे तक सीमेंट की पुताई की गई उन दीवारों पर बिंदियों की लड़ी अपने लाल होने के बायस ही उभरती प्रतीत होती हैं। बाथरूम की दीवारें नीम नींद में अधमुंदी आंखों से देखती है। जब नल खुलता है और पानी की धार गिरती है तब सीमेंट की पुताई वाली वे दीवारें सौंधी-सौंधी महकती है। दीवार की तन्द्रा टूटती है। वे सारी बिंदियां कमर की ऊंचाई पर चिपके हैं। जब नहाने बैठता हूं तो वे बिंदियां एकदम सामने पड़ती हैं। कई बार नहाना विलंबित कर उन बिंदियों से मूक संवाद करने लग जाता हूं। वे भी मेरी तरह वहां नहाने बैठती होगी। अपने बदन पर पानी डालने डालने तक उसे ये अपने माथे पर से ये बिंदी जल्दबाजी में हटाई होगी। कई बार तो एक दो मग अपने शरीर पर डालने के बाद चेहरे पर हाथ फेरने के क्रम में उसकी उंगलियों से टकराई होगी तब जाकर उसे इसे हटाने की सूझी होगी। ऐसा हर जगह होता है। गांव में चापाकल के पास बैठकर नहाती औरतें पेटीकोट अपने उभारों के ठीक ऊपर बांधने के बाद चुकुमुकु बैठकर चापाकल पर ही बिंदियां साट देती हैं। नदी में डुबकी लगाती औरतें पास के पत्थर पर इसे साट जैसे अपनी

कोई समझा कर घर ले आए हमको

मैं घर से भागा हुआ वो आदमी हूं जो गुस्से से भागा था। जाते समय के साथ मैं गांव की तरफ और सरकता जा रहा हूं। वहां के रहन सहन सोच पर और हावी होती जा रही है। अपने तरफ की बोली-भाष कान में शहद घोलती है। इस बेरूखी और बनावटी दुनिया में पुकार का सम्बोधन मात्र दिल को झकझोर देता है। जिस दिन वहां से चलने के लिए ट्रेन में बैठता हूं तो एक मायूसी छा जाती है। मन बैठने लगता है। उत्साह मुर्झा जाता है। एक मुर्दानगी छा जाती है। रेलगाड़ी अपने रास्ते पर बढ़ती है और मैं यह सोचने पर मजबूर हो जाता हूं कि घर छोड़कर ठीक कहां किया? ऐसा क्यों है कि यहीं खुद को पूरा पाता हूं। हम साला लोअर मीडिल क्लास लोगों के लिए समाज में सर्वाइव करना और भी मुश्किल है। बीच के रास्ते ने हमें कहीं का नहीं छोड़ा। ऑटो चला नहीं सकते, कचरा उठा नहीं सकते, पढ़ाई एक बोझ है जिसके लिए मां बाप से पेट काट-काट कर जैसा भी पढ़ाया। अंधविश्वास और प्रगतिशीलता का चंवर डुलाता यह समाज अपने आप ही मुग्ध है। लानत है ऐसे समाज पर जो अब तक पाप-पुण्य और अच्छे बुरे के दलदल में लिथड़े हुए कीड़े की तरह रेंगते हुए विकास के दंभ में जी रहा है। असल में लोअर मीडिल क्लास एक भ

महक सांवला रंग रखती है।

बात 2005 की है। फाल्गुन का ही महीना चल रहा था। खेत में सरसों झूमते थे। धूप नहीं भी होती तो लगता धूप के छाया की हल्की पीली पतली परत की चादर खेत में अपना शामियाना डाले रहती। इन दिनों हवा बावरी होनी शुरू हुई थी। हवा नीम के पेड़ पर उसके पत्तों के झुटपुटे में हमला करती... अंदर समाकर अंधड़ गोल होकर घूमती। एक अंधड़ सा उठता और और फिर उसी में गुम होकर खो जाती। स्वेटर का मौसम खत्म हुआ जाता था। हवा में ताज़गी थी मगर कहीं से भी ठंड नहीं लगती थी। फिलहाल शाम के पौने सात बजे थे। अंधेरा था। रोशनी के नाम पर करीब बीस मीटर की दूरी पर एक मकान के छज्जे पर लगी चालीस वाट की नियॉन बल्ब का हल्का पीला प्रकाश था।  महक मेरे सामने कुछ कदमों की दूरी पर आदतन क्रॉस लेग्स की मुद्रा में हल्के तिरछे होकर प्लास्टिक पाइप से बुनी कुर्सी के घेरे में फूल के मानिंद हौले से रखी हुई थी। नारंगी रंग के शॉर्ट कुरते में एक सांवली लड़की जिसका गला वी आकार में कटा हुआ था। हल्के नीले रंग के लांग स्कर्ट में लिपटी.... जब हवा चलती तो जैसे स्कर्ट पूरी तरह उसके पैर से लिपट कर पनाह मांगती..... और तब मुझे उसकी टांगों की लंबाई का सही सही अं

फिलहाल सिसकी......

अजीब बात है। आप किसी से कहां तक नाराज़ रहोगे, इस ज़माने में। नारियल का सा तो दिल है आपका। अंदर से श्वेत और कोमल और ऊपर से इगो। ऐसे में गर नाराज़ होते हो तो तुम्हारी मर्जी। हो जाओ। न तुमसे वो राब्ता रखेगा कि तुम अपनी नाराज़गी उस तक पहुंचा सको। न तुम गुस्से के मारे उससे वास्ता रख पा रहे होगे। इससे ज़ाहिर ही न कर सकोगे। तो बहुत दिनों बाद घुमाफिरा कर बात वहीं पहुंचेगी कि तुम्हें मुस्कुराना ही पड़ेगा। कितनी शिकायतें कहां तक पालोगे? लेकिन अपने दिल में कहां से क्या तक सोचते फिरोगे? खाने का निवाला, च्वइंगम जैसा लगेगा और लिथड़ता जाएगा जो कि हलक के नीचे उतरने का नाम  नहीं लेगा। ख्याल आएगा तो पानी का एक बड़ी घूंट लेकर उसे बस जैसे तैसे नीचे धकेल दोगे। पेड़ के पत्तों के गुच्छे के नीचे का अंधेरा अपने मन जैसा लगेगा। बाहर का धुंधला कोहरा कहेगा कि देख मैं तेरे मन का प्रतिबिंब हूं। इस कदर तुम्हारे दिलो दिमाग पर काबिज़ हूं कि कुछ भी साफ नहीं  है। सोच का समंदर दूर, बहुत दूर तक हिलकोरे मारेगा। एक लहर उठेगी और कहेगी - निकाले फेंक उसका ख्याल दिल से। दूसरी कहेगी कि होता है, उसे एक मौका और दे। तीसरी कहेगी, ऐसा पहले भी

नदी में बंसी डालकर हमारे हौसले न तौलो

मैं बूढ़ा हो रहा हूं। इस बात की तसदीक कई लोगों ने की है। शायद अब ऊंचा सुनने लगा हूं। आज सुबह से सीने में बायीं तरफ दर्द हो रहा है। कृषि वसंत के स्पोट्स जो मैंने लिखे हैं, इसके लैवेंजेस की आज रिकॉर्डिंग हो रही है। स्क्रिप्ट अनुवाद करने वाले वाइस ओवर आर्टिस्ट तरह तरह के शब्दों को समझने के लिए मेरे पास आ रहे हैं। मैं डर जाता हूं। इतनी जिम्मेदारी से कभी काम नहीं किया और ये सब आखिरकार ब्रॉडकास्ट और टेलीकास्ट का मामला है। मैं गुमनाम होकर काम करने में यकीन करता हूं। एक मास्टर स्पाॅट लिख दिया, उसके पैसे मिल जाएं, बस।  लेकिन ये गली आगे जाकर चैड़ी होती जाती है तब होंठ सूखने लगते हैं। जिम्मेदारी से भागने वालों में से हूं इसलिए इन सब कामों की जवाबदेही अपने ऊपर नहीं लेना चाहता। इससे उम्मीदें बढ़ती हैं और उन्हें पूरा करने में लग जाता हूं। सबकी आंखों का तारा बन जाता हूं। लोग मुझमें एक नया रूप देखने लगते हैं। तब लगता है वे मुझे रि-डिस्कवर कर रहे हैं। उनकी आंखों में अपने लिए एक इज्ज़त, खुद को लेकर एक हैरत अंदाज देखने लगता हूं। फिर एक दौर ऐसा भी आता है जब एक निहायत छोटी मगर बड़ी गलती कर जाता हूं.....