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Showing posts from October, 2013

सुषुम पानी से कहाँ बुझती प्यास- दो

जिस रात मैं जितना रोता अगली सुबह आप मुझे उतनी ही धुली हुई मिलती। मुझे आप फिर थोड़ी से बेवफा लगती . मुझे इसमें कोई कनेक्शन लगा। इसलिए मैंने खुद को तकलीफ देना शुरू कर दिया। धीरे धीरे मैं आपकी कक्षाओं में भी रोने लगा।   कितना कुछ समझा पाती है एक शिक्षिका भी? उतना ही जितना किताब बताता है और उसमें मिला अपना अनुभव। लेकिन ये एंडलेस है। चार लाइन फिर उसमें हम भी जोड़ते हैं। मुझे बहुत जोर का आवेगा जब दिल होता अपनी सीट से उठूं और जाकर एकदम से आपकी कलाई पकड़ लूं और कक्षा से बाहर बरामदे में, किसी खंभे के कोने में ले जाकर आपको कह दूं। और जब कह चूकूं तो चेतना इतनी शून्य हो जाए जैसे साइकिल की घंटी की बज चुकी ‘न्’ रहती है। फिर होश लौटे तो पता लगे कि मैंने जो कहा वो अटपटायी जबान में कुछ और था। ऐसे हिम्मत करके वही का वही कह पाने का मौका आखिर कितनी बार आता है। किस्मत में लिखी ही थी नाकामी कभी चुप रह कर पछताए, कभी बोल कर सर्दियों की वो क्लास याद है जब काली साड़ी पर आप मरून रेशमी शाॅल लिपटा कर आई थीं? चैथी कक्षा तक आंचल से शाॅल पूरी तरह उलझ चुका था। आपने ख