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Showing posts from August, 2013

नेकलाइन- एक

भीड़ में सहसा मुझे देख उसकी आंखें महकीं। चश्मा जोकि थोड़ा ढ़लक आया था सो उसने चार आंखों से मुझे देखा। मेरी निगाहें लगातार उस पर थी। नेकलाइन पर बल पड़े और वो आधी इंच नीचे धंस आई। चश्मे वालों के साथा थोड़ी दिक्कत ये होती है कि उसके शीशे पर अगर लाईट पड़ती है तो शीशे पर रोशनी की एक शतरंजी खाना नज़र आता है फिर एक पल को यह संदेह उपजता है कि उसने मुझे देखा या नहीं। और इसी दरम्यान अगर हम नहीं चाहते कि वो हमें देखे तो हम किसी दीवार के आड़े आ सकते हैं, नीचे झुक सकते हैं, पीछे मुड़ सकते हैं।  आंखें किसी को कैसे चीन्हती है। पहले स्वाभाविता में नज़र पड़ती है फिर सहज ही गर्दन इधर उधर घूम जाती है लेकिन उस पहचाने की आंख हमारे स्मृतियों में सहसा धंस आती है और तंग करने लगती है। संबंधों में एक लाख शिकायत के बाद भी पहली प्रतिक्रिया मुस्कुराहट की ही होती है। वो स्केलेटर से चढ़ रही थी और मैंने सीढि़यां ली थी। ऊपर प्लेटफार्म पर हाॅर्न बजाती मेट्रो आने या जाने का संकेत दे रहा था। अमूमन सभी मानकर चलते हैं कि गाड़ी अब लगने वाली होगी, सो सबके कदमों की रफ्तार बढ़ जाती है। एक दूसरे को पहचानने की क्रिया को

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उसके होने का गंध उसके नाभि से फूटती है लेकिन शब्द कहां से फूटते हैं? यूं ही विशाल पुस्तक मेले में अनजाने से बुक स्टाल पर बाएं से आठवीं शेल्फ में अमुक किताब का होना कि जहां दुकानदार भी नहीं उम्मीद करता हो कि पाठक यहां देखेगा सो वहां किताबों का सा भ्रम देता कुछ भी रख दो।  स्टाल पर कोने में ग्रे कालीन पर उन शब्दों से गुज़रते हुए जाने क्यों लगता रहा कि उसके लिखे जाने से पहले वे शब्द हमारे ज़हन में महफूज थे और किसी ने सेंध मार कर यह निकाली है। पढ़ना कई बार वही सुहाता जो हम पहले से जान रहे होते हैं। यह सोचना भी बहुत सुखद लगता कि हमारे शब्द साझे हैं। दिमाग से सरसरा कर फिसलते हुए उनकी उंगलियों के बीच फंसे कलम से कैसे किसी काग़ज़ पर वे आकार लेते होंगे? क्या 'द' वैसा ही होता होगा जैसा उनके दिमाग में उपजा था, या कि उनकी उंगलियों ने उसे सफहे पर रोपते हुए कोई कलाकारी कर डाली थी। उनका लिखा 'ज' भी आह कितना आत्मीय! पहचाने से शब्द जिन्हें बीच के बरस में कहीं भूल आए थे और उस भूलने की याद भर आती रही। यों ही अनायास वो पढ़ना छोड़ उन उंगलियों का ख्याल करने लगता हूं जो सर्फ से धोए ज

फेसबुक स्टेट्स !

लड़की ने अपना फेक फेसबुक अकाउंट खोला। सर्चबार में आर लिखा और दूसरे विकल्प को सेलेक्ट किया। ‘इसके सिर्फ टैग की हुई तस्वीरें और अपडेट्स दिखते हैं और लंबे अरसे से इसने किसी को टैग नहीं किया है’ फिलहाल वह स्क्राॅल डाऊन करके ‘शो ओल्डर स्टोरीज़’ में जाकर उसके पुराने स्टेटस देख रही है। अंर्तजाल पर यूं तो अरबों शब्द छींटे हुए हैं। जिनमें से हज़ार शब्द उसके भी हैं। पुराने स्टेट्स पर भी सरसरी निगाह डालते हुए उसमें जहां कहीं उसका अपना नाम दिखता  - आह! कितना सुखद अतीत!! मुझे ज़हन में रखकर लिखी गई महबूब की ये पंक्तियां। नियान लाईट की रोशनी लिए उन आंखों में क्षण भर के लिए एक सौ अस्सी वाॅट की चमक आ जाती है। और ये स्टेट्स उस शाम की है जब थोड़ी देर को सोकर उठी ही थी। सर में तेज़ दर्द था और दिल कर रहा था कि इस सूने घर में किसी को आवाज़ देकर कहूं - दीदी अदरक वाली चाय बना दो। कि तभी फोन की घंटी बजी। दिल ने जैसे धड़कना शुरू कर दिया। तकिए को हटाया तो लगा जैसे वो तकिए के नीचे ही आवाज़ लगा रहा था। फोन का रिंग भी जैसे मेरा ही नाम पुकार रही हो। स्क्रीन पर उसका नाम चमक रहा था। एन काॅलिंग..... के बा

A thousand things to forget....

जनाब एक मिनट अपना कीमती समय दीजिए। रूकिए एक मिनट! आपने अपने व्यवहार से तो अपनी बात कह दी। मैं ज़रा अपने मुंह से अपनी बात कहना चाहूंगा। मैं जानता हूं कि मुझे इसके लिए आपके अनुमति की जरूरत नहीं है। क्योंकि अगर आप नहीं सुनेंगे तो भी मैं अपनी बात कहूंगा। किसी से भी कह लूंगा। रसोई की दीवार से, अरूणेश के छज्जे से, कमरे के बाहर लटकती टाट के परदे से और गर महसूस हुआ कि गुसलखाने का सड़ रहा पयताना ही यदि मेरी बात सुनने में इच्छुक है तो मैं उससे ही कह लूंगा। मैं जानता हूं कि मेरी बातों से धुंआ नहीं उठता। यह एक ठंडी बुझी चुकी राख की मानिंद है जिसमें अब कोई चिंगारी नहीं। आप धीरज रखें मैं आपको यह आश्वस्त करना चाहता हूं कि यह कोई बवेला नहीं मचाएगी। मैं जानता हूं कि आपकी जिंदगी फेसबुक की तरह है जहां फलाने कहे को भी लाइक करना और चिलाने के उद्गार पर भी कमेंट करना है। क्षणभर में कहीं प्रशंसा भी करनी और तत्क्षण ही किसी दूसरे स्टेटस पर अफसोसजनक भी लिखना है और बढ़ जाना है। अपनी रीत और बीच चुके जीवन के आधार पर मैं यह चाहूंगा कि मेरा कहा आपका मनोरंजन नहीं करे। क्योंकि मैंने पाया है कि मैं मनोरंजन दे स

Guzarte Lamhen, passing moments via cinematic angle and '!!!'

27th May, 12 / Rasoi/ 12:55 AM (approx.) कल रात भारतीय समयानुसार   (how Hindi changes our thoughts!) IST 11:08 पर उसका कॉल आया। हैलो के बाद बीच के समय में हमारे संबंधों की गर्माहट घुल आई। पिछले मार्च में जब हम मिले थे तो हम कोस्टा कॉफ़ी  में हम बैठे थे। पेपर नेपकिन उठाते समय उसने मेरा हाथ पकड़ा था। बहुत धीमे धीमे मुझमें कुछ हुआ था। मैं सिकुड़ने लगी थी। समझ नहीं आया कि कई बार जिंदगी भर धोखा खाने और छलावे को रिश्ते में रहते हुए भी हम नए किसी रिश्ते के लिए तैयार क्यों हो जाते हैं? जबकि हम जान रहे होते हैं कि हमारे बाकी प्यार और रिश्ते की तरह यह भी अनकंडिशनल है। क्या हममें मना कर पाने की इच्छाशक्ति नहीं होती या फिर पहचान की यह दस्तक हमारी जीवन में उम्मीद बनकर आता है। रोशनी भी अजीब शै है, पूरी उम्र अंधेरे की आइसपाइस करते बिता देने के बाद भी हममें कहीं यह धप्पा बनकर पैठ जाती है। मैं अक्सर सोचती हूं कि आर को आखिर किस चीज़ की तलाश है! वेल...... अलग होते समय आर ने मेरे बाएं गाल उसके चुंबन लिया जिसने मुझमें एक नया जोश भर दिया था।   ------पॉज ......../कॉफ़ी ब्रेक / 30th May '12

मरती हुई मछली याद में ज़िंदा रह जाती है

17.03.12 at 11:52 PM आज अनजाने में ही ए का हाथ मेरे हाथ से छू गया। छुअन को लेकर मुझे लगता है कि हार्ड टच उनता अहम नहीं होता जितना किसी की त्वचा के साथ हमारे त्वचा के रोएं भर स्पर्श करें। इस सिलसिले में मुझे याद है तब मैं बारह की थी और सातवीं में पढ़ रही थी, लंच से ठीक पहले चौथे पीरियड में मृगांक ने एक लंबी गर्म सांस मेरी गर्दन पर छोड़ते हुए मेरे कान की लौ पर अपने नाक से एक धीमा सा स्पर्श कराया। मैं सिहर उठी थी। वो मेरी पहली सिहरन थी। छुअन का वो रोमांच मुझे आज तक याद है।   खैर......आज के इस स्पर्श से हमदोनों ही चौंक गए। हमने खुद को एक दूसरे से एक झटके से अलग किया। जब भी हमारी नज़र मिलती, हम एक दूसरे को तौलते, बैलेंस्ड बनने की कोशिश करते। फिर रिपोर्ट को समझते समझते मैंने बनावटी गुस्सा अख्तियार किया तो ए पूरी तरह सहम चुका था। मुझे उसका यूं डरना अच्छा लगा। 22.04.12 at 8: 47PM कल शाम ऑफिस से जल्दी पैक अप हो गया। मैं हूमायूं के क़िले को चली गई। जाने क्या मन हुआ कि मैं किले के अंदर न जाकर बाहर पार्क में ही टहलने लगी। आसमान बहुत गहरा नीला था। नीती जैसे अपने कैनवस पर नीले रंग