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Showing posts from May, 2013

रेडियो बरक्स हिंदी फ़िल्मी गीत

सिगरेट की आदत तब तक नहीं लगती जब तक दोस्तों के बीच मुंह में धुंआ भर कर, जबरदस्ती खांसी रोककर, गले की नसें सूजाकर और आखों में उसकी जलन को रोककर लाल करते हैं। सिगरेट की आदत उस दिन लग जाती है जब आप सुबह के सात बजे खास तौर से खूंटी पर टंगी कमी़ज को उठा कर उसके दोनों हत्थे में सीढ़ी से उतरते हुए उन हत्थों में डालते हुए, गली में चलते हुए उनके बटन लगाते हुए नुक्कड़ पर की गुमटी पर पहुंच जाते हैं और सिर्फ एक अदद सिगरेट दुकानदार को देने बोलते हैं। उस दिन सिगरेट की आदत लग गई पक्की समझिए। आज भी जो लिख रहा हूं वो भी कुछ ऐसा ही समझिए। बिस्तर पर था और एक बेचैनी थी, करवट काट रहा था। रहा नहीं गया तो उठ कर लिखने बैठ गया हूं। कोई तोप या धांसू चीज़ नहीं लिख रहा, न साहित्य रच रहा हूं। बस पिछली बार की तरह ही हिंदी फिल्मी गीतों के मुताल्लिक कुछ बातें हैं। जैसे जैसे मन में बातें आ रही हैं लिख रहा हूं। पृष्ठभूमि में रेडियो चल रहा है और जो बात दिमाग में फिलहाल छन कर आ रही है वो ये कि हिन्दी फिल्मी गीतों में ख्य्याम का संगीत अजब कोमलता लिए हुए है। उनके संगीतबद्ध किए गीत जब सुनता हूं तो लगता है जैसे किसी कमस

याद बरक्स हिंदी फ़िल्मी गीत

सु ब्ह से एआईआर की उर्दू सर्विस सुन रहा हूं। इतने अच्छे अच्छे फिल्मी गीत आ रहे हैं कि काम करते करते उंगलियां कई बार ठिठक जाती हैं और उन गीतों के बोलों में खो जाता हूं। गज़लें कई बार दिमाग स्लो कर देती हैं और एक उदास सा नज़रिया डेवलप कर देती हैं। कभी कभी इतनी भारी भरकम समझदारी का लबादा उतार कर एकदम सिंपल हो जाने का मन होता है। रेट्रो गाने सुनना, राम लक्ष्मण का संगीत ‘उनसे कहना जब से गए हैं, मैं तो अधूरी लगती हूं’ टिंग निंग निंग निंग। इन होंठों पे प्यास लगी है न रोती न हंसती हूं। लता ताई जब गाती हैं तो लगता है, मीडियम यही है। इन गानों में मास अपील है। सीधा, सरल, अच्छी तुकबंदी, फिल्मी सुर, लय और ताल जो आशिक भी गाएगा और उनको डांटने वाले उनके अम्मी-अब्बू भी। समीर के गीत गुमटी पर के पान के दुकान पर खूब बजे। ट्रक ड्राईवरों ने अल्ताफ राज़ा को स्टार बना दिया। और कई महीनों बाद जब इन गानों पर हमारे कान जाते हैं तो लगता है जैसे दादरा, ठुमरी, धु्रपद और ख्याल का बोझ हमारा दिल उठा नहीं सकेगा। हम आम ही हैं खास बनना एक किस्म की नामालूम कैसी मजबूरी है। हांलांकि यह भी सच है कि देर सवेर अब मुझे इन्

रिजेक्शन by कपिल

ईर ने कहा ब्याह करब बीर कहिस कि हमहूं ब्याह करब फत्ते भी बोलिस कि ब्याह करब तो ऐसेई मज़ाक मज़ाक में हम भी बोल दिए बियाह करेंगे। तो कपिल ने सागर को केंद्र में रखकर मज़ाक मज़ाक में एक कहानी लिख दी। आप भी नोश फरमाईए। वैसे कपिल मुकरियां भी बहुत अच्छा लिखते हैं और फेसबुक पर उनकी मुकरियां खासी चर्चित हैं। ये मुकरियां किश्तों में उनके ब्लाॅग पर भी मौजूद है। दफ्तर में हम कपिल के मुंहलगे जूनियर लगते हैं  और घर पर उनके मुंहलगे किराएदार। दफ्तर के दो लोगों को यानि एक कपिल शर्मा और दूसरे बिश्वजीत बैनजी को ठेल ठाल कर और डांट धोप कर हमने उनका ब्लाॅग बनवाया। कपिल जोकि भाकपा माले के कर्तव्यनिष्ठ कार्यकर्ता हैं, ने हिंदी की राह ली। (कोरबे ना, चोलबे ना) वाले बिस्वजीत बैनर्जी, एक सरकारी मकहमे में उंचे अधिकारी हैं साथ ही अरविंदो काॅलेज में फैकल्टी स्क्रिप्ट राइटिंग टीचर भी, उन्होंने अंग्रेजी की राह ली। हम जो कि विगत 11 साल से इंग्लिश सीख रहे हैं सो बिस्वजीत के ब्लाॅग से दूर दूर ही रहते हैं। हमसे तो अच्छा सिरीदेबी न जी? ऐतना बरिस बादो आके इंगलिश विंगलिश बोल गई! और अवार्ड सवार्ड भी बटोर गई। खैर। जिंदगी है,

इतवार की शाम और महबूबा के बेवफाई के किस्से

ज़रा ज़रा बीयर की आठ घूंट, ज़रा ज़रा प्याज़ की मोटे मोटे कतरनों के साथ किरचे लंबे लाल मिर्च वाले अचार का मसाला। ज़हर को बुझाने के लिए एक ज़हर। इतवार की शाम, थोड़ी से महबूबा के बेवफाई के किस्से और ज़रा ज़रा घर की याद। एक झटके से सिहरना, बौखलाना, आवेग में थोड़ा उंचा बोलना और नुसरत की गाई हर लाइन पर दिल से दाद देना। और तब वह कहती है - वो मुझे बहुत प्यार करता है। मुझे पीछे से अपनी बांहों में भर कर मेरी कान के लौ चूमता हुआ हौले से आई लव यू फुसफुसाता है। अपने जीभ को नुकीला बना मेरे गालों पर के गड्डे खोजता है। वह जब मुझे अपनी बांहों में कर तोड़ता है और हौले हौले मेरी बदन को सिलाई मशीन बना अपनी दांतो से टांकता है, जिस्म में उधड़ आई सीवन के धागे यहां वहां से खोजकर अपनी दांतों से तोड़ता है तो मैं हर लहरों पर राफ्टिंग  वाली खाली बोट बन पलटती जाती हूं। वो मुझे इतना प्यार करता है कि जब मेरे पपीते जैसे स्तनों को अपने गर्म हथेलियों में थामता है तो उसके हथेलियों के रेशे रेशे को मेरा ज़ोर ज़ोर से धड़कता सीना महसूस करता है। मैं सिकुड़ कर कोई और फल बन जाती हूं। ऐसे वक्त में अक्सर मेरे पैरों के अं

अक्ल के मदरसे से उठ इश्क के मयकदे में आ

अक्सा: उमरा, तू इज़हार क्यों नहीं कर देती ? उमरा: उसकी जरूरत है क्या ? अक्सा: दुनिया बड़ी तेज़ है री, अपना सामान ना छांको तो किसी और हो जाता है। मेरी देख, मैं इंतज़ार ही करती रह गई। उमरा: तो मैं भी कर लूंगी, ऐसी मोहब्बत किस काम की कि कहना पड़े..... तकरीबन रोज़ ही तो मिलना होता है उससे....जिसे आंखें पढ़ना न आए उसके लिए जिंदगी भर आंखों में इंतज़ार ही सही। अक्सा: उफ्फ! यही तो हमारी गलती है उमरा, हम इश्क में बहुत जियादा ही कुछ दाना होने लगते हैं। हमारी हरकतें तो नादान हो हुई जाती हैं मगर एहसास के पैमाने पर जज्बात यकायक चार दरजा ज़हीन हो जाता है। उमरा (जैसे अक्सा के बयान से गुम हो): ये सब मैं कुछ नहीं जानती.... (चहककर) तुम्हें पता है, हम दोनों का नाम बहुत छोटा है, बस कुछ हर्फों का ही हेर फेर है बस। कल को अगर फिलम वाले कोई गैरज़बान में सनीमा बनाएंगे तो जहां जहां हमारा नाम आएगा उनको डबिंग और लिपसिंक करने में कोई दिक्कत पेश  न आएगी। अक्सा (चिढकर): और तुम दोनों इस तरह लोगों की जबान में एक दूसरे को पा लोगे। हाय मैं मरी जाऊं, ज़हनी तौर पर पैदल हो गई हो क्या तुम,

लैंड माईन्स

मेज़ पर लुढ़का हुआ निब वाली कलम है जो स्कैनर के पैरों के पास कुछ तरह तरह औंधा पड़ा है जैसे रात भर जागने के बाद उसे चौथे पहर नींद आई हो। रूठ कर सोया था जिसकी रूठन नींद में भी दिख रही है। निब का नुकीला हिस्सा मेज़ और स्कैनर के बीच के खोह में घुस आया है। खुद को इस बिंब से बहुत रीलेट करता हूं। लगता है कुछ पैसों के लिए जैसे कोई लड़का अपनी मां से लड़कर रात भर घर के बाहर बिताया हो और पीकर कहीं गिरा पड़ा हो। कलम अपने में स्याही भरे है। इतना कि कपड़े खराब करता है। थर्मामीटर की तरह झाड़ो तो बुखार की तरह उतरता है। फर्ष को बूंद बूंद रंग जाता है। इसकी निब को देखता हूं तो किसी खूनी वारदात की तरह लगता है। आप इन काले स्याहियों से अपने दिल के लहू के अरमानों में रंग भर सकते हैं। ज़हन बिल्कुल खाली है लेकिन लगता है हुमक कर उठा लूंगा तो यकीनन दिल की बेचैनी को करार हो आएगा। कभी कभी हम पढ़ते कम हैं या बिल्कुल नहीं पढ़ते हैं। यह जान रहे होते हैं लेकिन इसमें इंगेज रहने का कोई बहाना चाहते हैं। स्कूली दिनों की तरह जहां बाप अगर मटरगष्ती करता देख लेगा तो कोई काम पकड़ा देगा सो बेहतर है किताब में सिर ड