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Showing posts from March, 2012

बक रहा हूँ जुनूं में क्या क्या कुछ, कुछ ना समझे खुदा करे कोई

सुख था। इतना कि लोग सुखरोग कहने लगे थे। उन सुखों को हाय लग गई। सुख था जब पापा प्रेस से चार बजे सुबह लौटते थे और मैं जागता हुआ, पापा और अखबार दोनों का इंतज़ार कर रहा होता था। सुबह सात बजे जब प्रसाद अंकल अपने गेट से अखबार उठाते हुए कहते - पता है सागर, आज के अखबार से ताज़ी कोई खबर और कल के अखबार से पुराना कोई अखबार नहीं, तो मेरे अंदर उनसे भी तीन घंटे पहले अखबार पढ़ जाने का सुख था। रात भर की जिज्ञासा के बाद दोस्तों को सबसे पहले शारजाह में सचिन का अपने जन्मदिन पर 143 रन बनाए जाने के समाचार सुनाने का सुख था।  सुख था कि मुहल्ले में मृदुला द्विवेदी के आए सात महीने हो गए थे और संवाद कायम के तमाम रास्ते नाकाम रहे थे तो अचानक एक सुबह द्विवेदी अंकल ने साहबजादी को मैट्रिक के सेंटर पर उसे साथ ले जाने को कहना, आश्चर्यजनक रूप से एक अप्रत्याशित सुख था। पापा का अपने अनुभव से यह कहना कि दुख नैसर्गिक है और लिखा है यह मान कर चलो और यदि ऐसे में सुख मिले तो उसे भी घी लगी दुख समझना, पापा के रूंधे गले से घुटी घुटी दोशीज़ा आवाज़ को यूं अंर्तमन में तब सहेजना भी सुख था। आज भी जब अकेलेपन में जिंदगी के कैसेट की स

रूठ कर गया है जो बच्चा अभी अभी

दर्द-ए-दिल लिखूँ कब तक ज़ाऊँ उन को दिखला दूँ  उँगलियाँ फ़िगार अपनी ख़ामा ख़ूंचकां अपना  हम कहाँ के दाना थे किस हुनर में यकता थे  बेसबब हुआ "ग़ालिब" दुश्मन आसमां अपना *** बू-ए-गुल, नाला-ए-दिल, दूद-ए-चिराग-ए-मेहफ़िल  जो तेरी बज़्म से निकला सो परेशाँ निकला. -----  चचा ***** उंगलियों से उनका नाम दीवार पर लिखते रहे और दीवार था कि खुद उनका आशिक था। जिसकी दुआ थी बुत से इन्सा में बदल कर सांस लूं वो बस इक मेरा नाम लिखने से आमीन हुआ। लिखा जिनके नाम खत सुब्हों शाम सागर, वो खुद ही सोचा किये मेरे यार के मुताल्लिक। इश्क की पेंचदार गलियां हैं, किसी के हो जाने से पहले जिनसे कुर्बत की तमन्ना थी वो फिदा होने के बाद जि़ना कर गया। कहां सर फोड़े और अपनी जज्बातों की रूई धुना करें, आईए कहीं ज़ार ज़ार बैठ रोएं, दारू पिएं। पीएं के यह भी तय था हमने नहीं चाहा था। जो चाहा था वो भी अपना होना कब तय था। गर जिंदगी मुहब्बत है तो इसकी कोई वसीयत नहीं होती। अगर यह नफरत ही है तो इसका अंजाम मुझको मालूम है। नुक्श तो जहान में है काफिर फिर क्यों सोचता है सर खुजाते हुए आखिर। दिल उ

इतिहास पलटो नदी का जहां खड़े हो कभी वहीँ से बहा करती थी

मुझे लगता है हमारे प्यार में अब वो स्थिति आ चुकी है जब मैं तुम्हें उस पुल पर बुला, बिना कुछ कहे ईशारा मात्र करूंगा और तुम वोल्गा में छलांग लगा दोगी। अरी पगली! जितनी सीधी तुम थी उतने हम कहां थे। तुम प्रेम जीने लगी थी और मैं प्रेम खेलने लगा था। सकर्स के किसी कुशल खिलाड़ी की तरह मैं एक ही वक्त पर कई प्रेम को गेंद की तरह हवा में खिला रहा था। उन दिनों मेरा आत्मविश्वास देखते ही बनता था। तुम दायरे के बाहर से मुझे मंत्रमुग्ध होकर देखती रहती और मैं उन गेंदों के साथ सालसा कर रहा होता। सर्कस की नियमित परिधि को एक अलग दुनिया जो ठीक तुम्हारे सामानांतर चल रही होती उस पर मैं अपने काम में तल्लीनता से लगा होता। मुग्ध हो जाने को बस वही एकमात्र क्षण था जब मैं अपने कर्म में रत था। ठीक निराला की तरह जब वह पत्थर तोड़ रही थी कवि उस पर मुग्ध था। वो पत्थरों को आकार दे रही थी और कविता का आधार रच रही थी, उधर वो कवि उस पर मुग्ध था। उस मुग्धता में भी जाने उसने अपनी कौन सी इंद्रिय बचा रखी थी जो उसके दर्द की परतें उधेड़ता है। मैं भी वही था एक कर्मयोगी सा चेहरा जिससे तुम प्यार कर बैठी थी, था तो आखिर वो आदमी का ही