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Showing posts from 2011

सांस भर भर कर निकालो मुझसे के जैसे समंदर में डूबते बचाया हो

बाबा, मेरी कतई ईच्छा नहीं थी। हम तो  धुंध    में गुम रेल की पटरियां देख रहे थे। उस पर काम करते  ग्रुप -  डी के गैंगमैन से बातें कर रहे थे। फिर वो बताने लगा कि 'सर ठंड में ना सुबह-सुबह काम पर जाना होता है।' एक ने बताया कि 'मैं बी. ए. पास हूं और डिपार्टमेंटल एक्जाम देकर आगे बढ़ जाऊंगा।  पिछले  दिसंबर में ही चार साथी ट्रैक पर कोहरे में काम कर रहे थे, गाड़ी कब उनको काट कर चली गई, पता नहीं चला सर। हम ठीक आधे किलोमीटर दूर पर काम कर रहे थे लेकिन जब सीटी मारने पर कोई जवाब नहीं आया तो जाकर देखा। ... तो चारों आठ टुकड़ों में यहां वहां बिखरे थे।' अब बताईए हम किसी दृश्य में इतना अंदर तक घुसे हुए थे और वो आई। वो आई और पता नहीं कैसे तो एहसास दिलाया। हम जो कि खुद पापा हुआ करते थे और मेरे बच्चे से दिन रात कोई ना कोई जि़द बांधे रहते थे, तो मैं उसे समझदार आदमी की तरह इस काम से सुनता और उस कान से निकालता रहता था, आज खुद बच्चा बन उसकी जि़द पकड़ कर बैठ गया हूं।  कोई डर है क्या कि जिस बोतल से दूध पीने से मना किया था वही उठा बैठा हूं ?  होठों पर ज़हर लगाकर उसने मुझे चूम

ताप

"गहरे दुख में स्त्री देह एक शरण है। चूल्हे की आंच में जैसे कोई कच्ची चीज परिपक्व होती है उसी तरह पुरुष के क्षत- . विक्षत खंडित अस्तित्व को वह देह संभालती है धीरे . धीरे अपनी आंच में फिर से पका कर जीवन देती है। स्त्री देह कितनी ही बार चुपचाप कितनी ही तरह से पुरुष को जीवन देती है पुरुष को नहीं पता होता।"    ---  दर्शक , प्रियंवद. लैम्पपोस्ट के नीचे बैठा हूं। नोयडा में विजि़बिलिटी शून्य है। डेढ़ सिगरेट पी जा चुकी है। आधी बचा कर रखी है। जेब में मेरे अरमानों की तरह मुड़ा तुड़ा कहीं पड़ा होगा। वही असमंजस में फंसा, मेरे दिल की तरह छोड़ दिया जाए या फूंक दिया जाए सा। किसी दड़बे में पड़े चिकेन सा जो अपने सारे साथियों को बारी बारी खींचा जाता देख दूर पिंजरे से और सटता जाता है और गला रेते जाने से पहले ही उसकी आंखे कई खून देखकर मर जाती हैं। गौर से देखो तो आज तकरीबन हर आदमी भी इसी तरह जी रहा है कि मेरी बारी नहीं आएगी से बचता हुआ। और इसी भ्रम में मौत से पहले बेमौत मरता हुआ। इस जगह पर पीछे मुड़ कर तुम्हें याद कर रहा हूं और यह किसी सिनेमा का क्लाइमेक्स लग रहा है। क्या वह दुनिया मेर

रोना

  अपने पिछले दिनों की डायरी पढ़ी, पढ़कर मन में संतोष हुआ कि मन की बातें लिखी हैं। मैं रात में अपने आप से ही किया वादा सुबह होते होते भूल जाता हूं। मेरी जो हालत है वो आज पढ़ी गई ' यारोस्लाव पुतीक' की एक कहानी ‘इतने बड़े धब्बे'   से बयां होती है। इसमें नायक को पता नहीं चलता कि क्या हो गया है। वो अचेतावस्था में सारे काम करता है। कोई चीज़ उस पर असर नहीं करती। हालांकि वह सोचता बहुत है पर वह करने से काफी अलग है। सबको खुश रखने के लिए वो पहले ही वे सारे काम कर देता है जो उससे पूछा तक नहीं जाता ताकि लोग वक्त से पहले ही चुप हो जाएं जिससे उसके अंतर्मन में चलने वाला दृश्य या उलझन में खलल ना पड़े। मनोवैज्ञानिक स्तर से यह मेरे काफी करीब है।  मैं बहुत परेशान हूं। रोना आ रहा है। जब सारी उत्तेजना, खून का उबाल, गुस्सा, तनाव, निराशा और अवसाद निकल आता है तब व्यथित होकर आंख से थोड़ा सा आंसू निकलता है। कितना अच्छे वे दिन थे जब दिन-दिन भर आंख से निर्मल आंसू झरते रहते थे। कमरे में, पार्क में, मंदिर-मजिस्द में, आॅफिस में, किताब में... कहीं भी बैठ कर खूब-खूब रोते थे। कोई रोकने वाला नहीं

नाऊ द टीयर्स आर माई वाइन एंड ग्रीफ इज माई ब्रेड/ईच सन्डे इज ग्लूमी, व्हिच फील्स मी विद डेथ

आओ आबिदा हमारे परेशां दिल को अपनी आवाज़ की प्रत्यंचा पर चढ़ा दूर तक फेंको। मुझे सुर बना कर अपने तरन्नुम में ढ़ाल लो। मेरा अस्तित्व जो कि महज एक छोटा सा पत्थर है आधी ज़मीन गड़ी हुई कि जिससे आने जाने वालों लोगों के लिए एक बाधक बना हर रहगुजर को ठेस लगाता रहता है। आओ आबिदा। आओ सिर्फ तुम्हारी आवाज़ का सामना करने के लिए मैंने सारी तैयारी कर ली है। आज हमारे और तुम्हारी आवाज़ के बीच मेरे कोई जज्बात नहीं कोई अल्फाज़ नहीं, कोई एहसास नहीं। मैं तो क्या तुम भी नहीं। मगर बस तुम्हारी आवाज़...! आओ आबिदा। मैंने अपनी ही सिंहासन तोड़ने की तैयारी कर ली है। मुझे आज नदियों, पहाड़ों, खाईयों, फूलों की जलवागर जज़ीरों को याद नहीं करना। मुझे तुम्हारी आवाज़ के मार्फत बस इतना जानना है कि जिन्हें खोने का इल्म मुझे है, जिसे जाने के सदमे को मैंने यह सांत्वना देकर जी लिया कि यादें कभी नहीं मरती, चेहरे अमर हो जाते हैं, वो हमारी दिल में रहेगा, ज़़रा अपनी आवाज़ से वो सब झूठा साबित कर दो, सारे जख्म हरे कर दो, वही दर्द उकेर दो। एक मूर्तिकार की मानिंद अपने रूतबेदार आवाज़ को पलती छेनी बना मेरी गले और छाती से होते हुए द

सूरजमुखी के फूल का एक पत्ता हिलता रहता है... क्या मर्सिया पढता है या चूमने का आमंत्रण देता है.

वक्त हो गया जानम, अब अपने हल्के ऊनी कपड़े उतार कर मुझे दे दो। जो तुमने दिन भर पहन कर इधर उधर भागदौड़ की। तुमने दौड़ कर बस पकड़ी, हमारे भविष्य को सोच सोच कर लिफ्ट में पसीने पसीने हुई। ना ना बाथरूम के शीशे में अपने चेहरे पर जमी इस चिकनाई को धोना मत। मैं दिली तमन्ना थी कि तुम खूब थको। इस दुनिया के तमाम रंगो बू तुममें शामिल हो जाए। हाईवे के किनारे उग कर फैल जाने वाले मालती के फूलों जैसी। बेतरबीब और नैसर्गिक सौंदर्य। जब कभी मैं तुम्हारे तांबाई नीम उरियां गुदाज़ बाहों के बारे में सोचता हूं तो लगता है कि शराब के बाद का संबल देने वाला बस यही एक हहराती डाल है जो इस वक्त ठहरी है। मैं जनम का प्यासा, नींद में प्यास लिए जब यह ख्याल करता हूं कि तुम्हारे इन बाहों पर दिन पर एक नमकीन नदी तैरी होगी जो अब सूख कर तुम्हें और नमकीन बना चुका है तभी तुम्हारी तुलना खुद से कर सकने में समर्थ होता हूं। इंसानों में क्लास वैसे भी कभी नहीं पसंद आया। इन दिनों दिन भी कैसा लगता है। कुछ चेता और बेसुध सा। जैसे नींद में गला सूख रहा हो। कोई परेशान करने वाला सपना देख रहा होऊं, जिसे तोड़ नहीं पा रहा होऊं और सूखे हलक पर खा

आँखों के लाल डोरे में तैरती है शराब. बेजोड़ उदहारण में शराब और नशे का ये वाहियात जोड़ है.

सुबह आंख खुलते ही जो सबसे पहले चीज़ सोची वो यह कि आज पीना है। पीने को लेकर इतना मूड बनाकर नहीं पिया। हमेशा सोचा और पिया। यह बिल्कुल वैसा है जैसे 15 को मेरी शादी हो यह सोच की बात है लेकिन अगर आज 15 ही हो तो आज शादी का काम करना है। अतः आज पीना है। इसके लिए मैं कल रात से ही मूड बना रहा हूं। यह क्या उम्र है कि मुझे हर चीज़ के लिए अब तैयारी करनी पड़ती है। आज की शाम चाहता हूं कि सारी दुनिया शराब में डूब जाए। दिल करता है अखबार में इश्तेहार दे दूं जैसे एनजीओ संस्थाएं आठ से साढ़े आठ लाईट, पंखा बंद करने का आहवान करती हैं। शराब मेरी नस नस में उतर आए। मैं क्या पीयूंगा यह दोस्तों पर छोड़ता हूं लेकिन पीने में मज़ा तभी है जब मैं अपने हलक में थोड़ी थोड़ी देर रोक कर घंूट लूं। जैसे पुराने भोथरे ब्लेड से चेहरे के नीचे शेविंग करते समय कई जगह से खून की धार बह निकले और बहुत इत्मीनान से उस पर फिटकरी लगाई जाए। होता अक्सर ये है कि पी लेने के बाद मैं एक स्त्री में तब्दील हो जाता हूं, एक पतित स्त्री में। नहीं नहीं मीना कुमारी को याद मत कीजिए। पीना और लिखना बादशादत देती है। कितना भी बूढ़ा हो जाऊं

घंटी

चार बजे स्कूल की घंटी बजती है। इसको बजते बहुत कम बच्चों ने देखा है। कुछ उन बच्चों ने जिन्हें मास्टर जी की क्यास निहायत ऊबाउ लगता है, जो अपनी कक्षा में 92 की वल्र्ड कप के हीरो इमरान खान की बात नहीं करते। कुछ उन बच्चों ने जिन्होंने सबक नहीं बनाया हो, अपना नंबर आता देख 3ः55 पर रोनी सूरत बना कर हाथ की कानी उंगली उठा देता, कुछ उन लड़कों ने जिनके लिए पढ़ाई मायने नहीं रखती, कंठ फूट रहा हो, बगलों पर मुलायम बाल आने शुरू हुए हों और रात को स्वप्नदोष की बातें जब अपने दोस्तों को बताए तो साथी नफरत से पेश आते हुए उसे सही जगह उपयोग करने की राय दे। स्कूल के पीछे की गली में बहता अविरल पेशाब महकता रहता और कुछ चार चार साल से अपनी ही कक्षा में जमे बच्चे अपनी-अपनी वाली को (जो कि कोई एक हो तय नहीं था) यथा संभव चूम रहे होते।  वक्त के उन कीमती पलों को आज जिसने भी संजो कर रखा है उस माहौल और उस गंध की तलाश में आज भी मारा मारा फिर रहा है।  वैसे कई बच्चों ने घंटी को गौर से नहीं देखा था। घंटी उनके लिए एक आनंद की लड़ी थी। बिना देखे वो कल्पना कर लेते कि लोहे का दो मोटा लंबा सा छेद वाला राॅड है जि

जिस्म एक सपाट पार्क है

वो पार्क वहीं है, और आज मेरा मन भी सुबह से वहीं है। पार्क स्थिर किंतु मैं अस्थिर। पार्क में बदलाव बस इतना हुआ है कि वो आजकल सुबह और शाम धुंध के घेरे में रहती है। यों पार्क का बदन भी देखा जाए तो वो भी तुम्हारे जिस्म सा ही लगता है। बहुत हरा भरा पर खाली। हरी हरी दूब जैसे भरा पूरा तुम्हारा शरीर। पार्क के बीचों बीच एक लंबा लैम्पपोस्ट जैसे तुम्हारे मस्तिष्क रूपी ज्ञानेंद्रिय। थोड़ी थोड़ी दूर पर दो सरमाएदार पेड़ जैसे तुम्हारे उभार। चारों ओर नीम, अशोक, शीशम, गंधराज और रातरानी के पेड जैसे तुम्हारे आंख, नाक, जीभ और त्वचा जैसी ़ सभी इतने संवेदनशील।  किनारे पर कुछ सीमेंट के टेढ़े बेंच भी बने हैं जहां तुमसे घंटों बातें करते हुए मेरी कमर में दर्द हो उठता था मगर अब उनपर लगातार बैठने वाला कोई नहीं। सभी कुछ क्षणों के खुदगर्ज। रात साढ़े आठ बजे उस पार्क को अक्सर बस से देखता हूं। एक सिनेमाई स्लो मोशन में ज़हन वहां से गुज़रता है। आकाश से शीत बरस रहा है। बीचोंबीच के लैम्पपोस्ट की पीली रोशनी एक गर्द से भरी है जो तिरछे होकर दूर तक जाती हुई ज़मीन को छूती है। तुम्हारा अक्स बहुत उदास उदास किसी

वक़्त के गर्म बाज़ार में एक हम ही तही-दस्त हैं

आई ओफेन सी यू इन माय बालकनी इन द डिफरेंट पोजेज़ समटाइम्स विद काॅफी मग इन केजुअल समटाइम्स व्हेन यू आर    नॉट    ओनली यू इवेन नो, डैट इज़ योर इमेजि़ज,    नॉट   यू बट देयर इज़ समवन इन माय हार्ट  हू डिक्लेयर्ड - यू आर माय हनी आई    ओफेन    सी यू इन माय बालकनी... ओ.. ओ.. ओ ... कैसे कैसे बुनती हूं, क्या क्या गुनती हूं। दो कांटों के बीच ऊन का धागा उंगली से झगड़ता रहता है जैसे कोई लम्बी बहस हो या जैसे मेरी ही बेटी हो और यह शिकायत लेकर मायके आई हो कि कैसे घर में मुझे ब्याह दिया। हर फुर्सत में लड़ती हो। मैंने सर्दियों में कई कई स्वेटर बस इसी ख्याल में बुने हैं, तुम्हें सोचते हुए। तुम जो कि एक मसला हो बड़े भी बस ख्याल में ही हुए। तुम्हारे जितना स्वेटर तैयार हो जाता है मगर तुम वही के वही बने रहते हो।  इन दिनों आसमान मटमैला रहता है और पूरा वातावरण धूल से भरा लगता है मानो परले गली में कोई जोर जोर से झाड़ू लगा रहा हो। नीबूं के पेड़ों पर पत्ते नहीं हैं और वे ठूंठ बन गए है। तुम्हारा राह तकते मेरे पत्थर हो जाती आंखों सी। देखना कोई आधी रात काट ले जाएगा इसे अलाव के वास्ते। 

मुलाक़ात

sushant:   Namaste !   Keshav:   ha ji kaha rehte hai janab aap sushant:   yahin rehte hain farmaayen sarkaar Keshav:   yaar tu bata baal bacha ser pe yere   sushant:   duniya kahan se kahan chali gayi aap baal par hi hain !!! hairat hai maalik Keshav:   aur Vidya ke saadi mai gaya tha sushant:   nahi dost aap bhi gye / padhare? Sushant:   Jai ho ! Keshav:   aur tu bata tu kab kar raha hai ? sushant:   kya??? Keshav:   jaan rahe the ki puchega hi sushant:   hehehe Keshav:   seedh seedha jawab nahi diya jaata tere ko nahi pata naa ki kya kya hai sushant:   maai -baap aap to hamein jaante hain Keshav:   to jawab de sushant:   ji Keshav:   kab kar raha hai sushant:   kya u mean shaadi ?   Keshav:   gaandu   sushant:   oh no   Keshav:   ha ji   sushant:   fuck off   Keshav:   shaadi   sushant:   betichod Keshav:   hahahaha aa gaya aukaat pe sushant:   ji aapko dekh kar aana padta hai warna aap maante nahi meri shaadi 2020 me