Skip to main content

हिज्र

डिस्क्लेमर: इस पोस्ट के सभी पात्र वास्तविक हैं, इनका दिए गए ब्योरे से, उन घटनाओं, स्थानों एवं संदर्भित व्यक्तियों से पूरा सम्बन्ध है और ऐसे सभी काम के लिए वही पात्र उत्तरदायी है.

दिनांक : गुलाबी सर्दियों कि आमद

स्थान    : सामान्य सी बात थी,  हर जगह घटती रहती है.

समय     : टूटने का कोई वक्त होता है क्या ?? नहीं बताओ ना होता है क्या ?  

जुर्म       : वही, घिसा पिटा काम जो सब करते हैं.

इकबालिया बयान :

20 वीं सदी के जाते जाते और 21 वीं सदी की दहलीज़ पर पैदा हुआ, प्रेम करता हुआ और और जीता हुआ मैं एक कन्फ्यूज्ड किशोर था. मुझे जावेद अख्तर के लिखे मीठे गाने अच्छे लगते थे, देर रात में कुमार सानू और सोनू निगम को सुना करता. जिनमें बेशुमार, तितली, नदी, पहाड, झड़ने, बादल, रंग, बारिश, आंचल और मदमाते नयनों का जिक्र होता. मुझे सोच कर सारी कायनात मुहब्बत से सराबोर लगती. तब मुझे बहुत कुछ कहाँ पता था... लेकिन जो पता था वो यह कि तुम्हीं सच हो और पूरे जगत में बिखरी हो. हर किताब और गिफ्ट पर बड़े भलमनसाहत से लिखता था लव इज लाइफ. 

तब कहाँ पता था कि मुहब्बत फुर्सत में किया जाने वाला काम है. भोलेपन में मैंने कई सच्चाईयां झुठला दी थी. मैं तुम्हें सोच कर पत्ते तोड़ता और उसे संभल कर शर्ट कि जेब में रख लेता... रखे रहता, फिर धुलते  वक्त उसमें दाग लग जाते.

तुम्हें सोचने के सिलसिले में एग्ज़ाम में फेल होता रहा और मैं बड़े घमंड से अपने दोस्तों को बताता रहा कि कैसे किसी के लिए ऐसे काम करने में कितनी खुशी मिलती है. मासूमियत ने मेरे असली सिरोपा को पूरी तरह ढँक लिया था. मैं उससे बाहर नहीं निकलना चाहता था. मेरे बस्ते में किताबों से ज्यादा, तुम्हारे दिए फूल, पत्ती, उपहार रहते थे जिनका बोझ उठाये मैं कई सदियों तक चलता रहा मुझे तब वो बोझ नहीं लगता था अलबत्ता बाबूजी कहते रहे कि ज्यादा बोझ उठाकर चलने से गति धीमी पड़ जाती है.

मैं कितना बड़ा चूतिया था !

जिस पल तुमने मेरे जीवन से मुंह फेरा था और लौट का जा रही थी, तुम्हारी पीठ एक युग में तब्दील हो गई थी... वे उसी पल विलुप्त हो चुकी संस्कृति का हिस्सा बन गया. मैंने उस सदी की कुछ छाप बचा रखी है. तुम्हारे उस फैसले को सहेज रखा है. वो पल प्याले में हल्का हिलता शराब की आखिरी घूंट ही तो थी जिसे तबियत से बिना मिलाये घोंट ली गई थी. वैसे घोंट तो कई और चीजें भी दी गई थी जिसे उँगलियों पर किये गए एहसान के रूप में गिनाया जा सकता है जैसे - सपने, भविष्य, दुनिया फलाना चिलाना आदि. हुंह.

तुम्हें मुंह कहाँ फेरा था ........  (बदला हुआ नाम) बस मेरी नज़र घुमा कर मेरे गर्दन पर छुरा फेरा था.

तुमसे बिछड़ने के बाद तो लगा जैसे कोई जुनून ही है जो मुझे चला रही है, मुझे सबको साबित करना पड़ा कि मैं सांस ले रहा हूँ, पढ़ रहा हूँ, जी रहा हूँ, शादी-ब्याह में शरीक होना पड़ा, हंसना पड़ा. मुझे लगता था जैसे किसी कर्फ़्यू वाले दिन मुझे घेर का गोद-गोद के मारा गया है और मैं विछीप्तों की भांति कोने खोजता रहा. मैं इत्मीनान से मारना चाहता था गुमनामी कि मौत लेकिन आसमान चाहता था कि मैं अधमरा कर के छोड़ दिया जाऊं.

आज बेशुमार सच्चाइयों को जान रहा हूँ. तब उन भोलेपन से निकलना नहीं चाहता था. आज भी कलेजा नहीं हो सका है कि मैं भी मुहब्बत करने वालों को चुगद कह दूँ अलबत्ता हौसला जुटा रहा हूँ.

एक खवाहिश जरूर होती है कि मैं चित्रकारी करूँ और उसमें इंसानों के नाक बड़े रखूं, औरतों की छातियाँ जरुरत से ज्यादा बड़े रखूं. क्योंकि जो चित्रकार ऐसा करते हैं उसका मतलब समझ रहा हूँ.

 *****

चलते-चलते : आज शायद दर्पण का जन्मदिन है...... तो मेरे भविष्य बर्बाद होने की टिपण्णी करने वाले इस युवक के नाम ढेर सारी दुआएं और मुबारकां. आप आज अपने जाम की आखिरी घूंट जरूर शिद्दत से मिला कर पीएं. इंशाल्लाह, जल्द साथ बैठेंगे.

Popular posts from this blog

व्यावसायिक सिनेमा

   स्वतंत्रता आंदोलन के दौड में फिल्मकारों ने भी अपने-अपने स्तर पर इस आंदोलन को समर्थन देने का प्रयास किया. तब तक देश में सिने दर्शकों का एक परिपक्व वर्ग तैयार हो चुका था. मनोरंजन और संगीत प्रधान फिल्मों के उस दौड में भी देशभक्ति पूर्ण सार्थक फिल्में बनीं.                         स्वतंत्रता के ठीक बाद फिल्मकारों की एक नयी पीढ़ी सामने आई. इसमें राजकपूर, गुरुदत्त, देवानंद, चेतन आनंद एक तरफ तो थे वी. शांताराम, विमल राय, सत्यजीत राय, मृणाल सेन और हृषिकेश मुखर्जी, गुलज़ार और दूसरे फिल्मकारों का अपना नजरिया था. चेतन आनंद की ‘ नीचा नगर ’ , सत्यजीत राय की ‘ पथेर पांचाली ’ और राजकपूर की ‘ आवारा ’ जैसी फिल्मों की मार्फ़त अलग-अलग धाराएँ भारतीय सिनेमा को समृद्ध  करती रहीं . बंगाल का सिनेमा यथार्थ की धरती पर खड़ा था तो मुंबई और मद्रास का सीधे मनोरंजन प्रधान था. बॉक्स ऑफिस की सफलता मुंबई के फिल्मकारों का पहला ध्येय बना और इसी फेर में उन्होंने सपनों का एक नया संसार रच डाला. मनोरंजन प्रधान फिल्मों को व्यावसायिक सिनेमा के श्रेणी में रखा गया.             एक दीर्घकालीन संघर्ष के बाद स्वतन्त्रता के अभ

समानांतर सिनेमा

            आज़ादी के बाद पचास और साथ के दशक में सिनेमा साफ़ तौर पर दो विपरीत धाराओं में बांटता चला गया. एक धारा वह थी जिसमें मुख्य तौर पर प्रधान सिनेमा को स्थान दिया गया. एक धारा वह थी जिसमें मुख्य तौर पर मनोरंजन प्रधान सिनेमा को स्थान दिया गया. इसे मुख्य धारा का सिनेमा कहा गया. दूसरी तरफ कुछ ऐसे फिल्मकार थे जो जिंदगी के यथार्थ को अपनी फिल्मों का विषय बनाते रहे. उनकी फिल्मों को सामानांतर सिनेमा का दर्जा दिया गया. प्रख्यात फिल्म विशेषज्ञ फिरोज रंगूनवाला के मुताबिक, “ अनुभूतिजन्य यथार्थ को सहज मानवीयता और प्रकट लचात्मकता के साथ रजत पथ पर रूपायित करने वाले निर्देशकों में विमलराय का नाम अग्रिम पंग्क्ति में है ” . युद्धोत्तर काल में नवयथार्थ से प्रेरित होकर उन्होंने दो बीघा ज़मीन का निर्माण किया, जिसने बेहद हलचल मचाई. बाद में उन्होंने ‘ बिराज बहू ’ , ‘ देवदास ’ , ‘ सुजाता ’ और ‘ बंदिनी ’ जैसी संवेदनशील फिल्में बनायीं . ‘ दो बीघा ज़मीन ’ को देख कर एक अमेरिकी आलोचक ने कहा था “ इस राष्ट्र का एक फिल्मकार अपने देश को आर्थिक विकास को इस क्रूर और निराश दृष्टि से देखता है, यह बड़ी अजीब बात

मूक सिनेमा का दौर

दादा साहब फालके की फिल्में की सफलता को देखकर कुछ अन्य रचनात्मक कलाकारों में भी हलचल मचने लगी थी। 1913 से 1918 तक फिल्म निर्माण सम्बंधी गतिविधियां   महाराष्ट्र   तक ही सीमित थी। इसी दौरान कलकत्ता में   हीरालाल सेन और जमशेद जी मदन   भी फिल्म निर्माण में सक्रिय हुए। फालके की फिल्में जमशेद जी मदन के स्वामित्व वाले सिनेमाघरों में   प्रदर्शित   होकर खूब कमाई कर रही थीं। इसलिए जमशेद जी मदन इस उधेड़बुन में थे कि किस प्रकार वे फिल्में बनाकर अपने ही थिएटरों में   प्रदर्शित   करें। 1919 में जमशेदजी मदन को कामयाबी मिली जब उनके द्वारा निर्मित और रूस्तमजी धेतीवाला द्वारा   निर्देशित   फिल्म ' बिल्म मंगल '   तैयार हुई। बंगाल की पूरी लम्बाई की इस पहली कथा फिल्म का पहला   प्रदर्शन   नवम्बर , 1919 में हुआ।   जमदेश जी मदन ( 1856-1923) को भारत में व्यावसायिक सिनेमा की नींव रखने का श्रेय दिया जाता है।   वे एलफिंस्टन नाटक मण्डली के नाटकों में अभिनय करते थे और बाद में उन्होंने सिनेमाघर निर्माण की तरफ रूख किया। 1907 में उन्होंने   कलकत्ता का पहला सिनेमाघर एलफिंस्टन पिक्चर पैलेस   बनाया। यह सिनेमाघर आ