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Showing posts from June, 2010

आँखों में कैद चंद मंज़र

दृश्य -1 एग्जामिनेशन होल में, किसी सवाल का जवाब सोचते हुए कनपटी से पसीने की एक धारा फूटती है... टप! कान के नीचे गिरती है. सवाल बदल जाता है. "गर्मी से निकली पसीने की बूँद ठंढी क्यों होती हैं?" दृश्य -2 बेरोजगारों ने बेंचों पर मां-बहन की गालियाँ लिख कर खुन्नस निकाली है... गिनता हूँ 1-2-3-4-... उफ्फ्फ ! अनगिनत हैं दोनों तरफ... बाहर गांधी मैदान में, 'बहन जी' की रैली है... हर खम्भे पर हाथी है. दृश्य -3 "तुम्हारी कंवारी पीठ पर के रोयें हिरन जैसे सुनहरे हैं" अगली बेंच पर बैठी श्वेता को जब मैं यह कहता हूँ तो वो दुपट्टे का पर्दा दोनों कांधों पर खींच लेती है. कभी फुर्सत में तुम्हें  "एक सौ सोलह चाँद की रातें, एक तुम्हारे काँधे का तिल" का मतलब समझाऊंगा... मैं सोचता हूँ. दृश्य -4 बाहर निकलता हूँ...आसमान में मटमैले बादल छाए हैं... गंगा शहरवालों से उकताकर तीन किलोमीटर पीछे चली गयी है. मैंने इतनी परती ज़मीन बरसों बाद देखी है... मुझे गुमां होता है कि मैं राजा अशोक हूँ और हवा मेरे कान में कहती है " बादशाह! यह पाटलिपुत्र की सरज़मीन आपकी हुकूमत का हिस्

आने वाले दिन पहाड़ हैं, जानेमन

बाहर/ दिन/ स्थान : रेलवे स्टेशन/ दोपहर बाद कोई समय. खटर-खटर करती हुई ट्रेन, गोली की रफ़्तार से निकलती जाती है. कल्याण से घाटकोपर की ओर हर तीन मिनट पर उसी ट्रैक पर धरती का छाती कूटती ट्रेन की आवाज़ में ना जाने कितनी चीखें दब जाती हैं... इन वज्र पहियों में कितना शोर होता है, निर्ममता से हर चीज़ को पिसती हुई निकल जाती है. यहाँ रफ़्तार और शोर हमारे लिए बाध्यता नहीं होती बल्कि हमारी एकाग्रता और बढ़ा देती हैं... आह ! क्या विचित्र संयोग है! कल रात पगलाया हुआ टी.वी. खोला था तो लाइफ इन अ मेट्रो का गाना आ रहा था - "अलविदा - अलविदा". हत्यारे की तरह चैनल बदला तो एक नायिका, नायक को बुझती आँखों से जीने का हौसला बंधा रही है - आत्मदाह की दस्तक आती है, गीत शुरू हो जाता है "देख लो आज हमको जी भर के, कोई आता नहीं है फिर मर के" ... यह भी क्या कम संयोग नहीं कि जिस दिन हमारा दिल बुरी तरह कचोट कर टूटता है रेडियो, टी.वी. भी वैसा ही गीत सुनते हैं. सच बताओ कुदरत, कोई साजिश तो नहीं ! रंगमहल में आज कुछ भी सजा हो, लाल कालीनो वाली पार्टियों में कितनी ही रौनक हो, अप्सराएँ नाच रही हो,