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Showing posts from April, 2010

It happens only in office यार...

ज़रा   कल्पना कीजिये ,   आप अपने दफ्तर के केबिन में बैठे हों और जीमेल पर बहुत दिनों बाद आपकी   ' शोना ' ( कामिनी ,   सिर्फ आपकी शोना ,  एक्सक्लूसिव फॉर यू)   आपको   ऑनलाइन   दिख जाये तो आप सब काम छोडकर चैट करने में मशगूल हो जाते हैं ,  बातों का सिरा कुछ यूँ होता है:- me :   Hello ! (इसलिए की पिछली बार आपने स्वीटहार्ट बोलकर पंगा मोल ले लिया था और वो नाराज़ होकर   लोगआउट   हो गयी थी ,  अबकी आप अच्छी छवि के साथ सामने आते हैं) shona : ( कामिनी)   : hieeeee !!!!! (आपने मेल में भी उसका नामकरण शोना ही कर दिया है , ( आप आई की मात्र l  लंबी देख उसके मूड का अनुमान गर्मजोशी भरा मानते हैं ) me  :  J shona  :  J me : kaisi ho madam   ? (आप मूड चेक करने के लिए यह लिखते हैं ,  सम्हाऊ   ' मैडम '  का इस्तेमाल तो इसीलिए किया गया है ) shona : achchhi hoon, tum batao me :   so  how is life going  ?  ( पर्सनल   लाइफ में झाँकने की पहली चाल शुरू करते हुए) shona :   enjoying honeymoon in honolulu ! its amazing...  ( आप यकीन करना पड़ता है क्योंकि   कल ही आपने उसके फेसबुक पर   उसक

कोमल...

कोमल को ‘ ओए होय होय होय होय ’ बोलने की आदत है और मेरा ‘ शब्द जादू करते हैं ’ कहने की. हम कह सकते हैं की यह दोनों हमारे तकिया कलाम है जो वक्त- बेवक्त हम दोनों दोहराते रहते हैं. पर बहुत फर्क है हम दोनों में. कोमल जो की मेरी बेटी है जी. वो जब ‘ ओए होय होय होय होय ’ बोलती है तो कई भाव में बोलती है... हैरानी में, शरमा कर, जब किसी पे प्यार आये तब. वो 15 साल की हो चुकी है पर पिछले 3 साल से खुद को 12 से आगे नहीं मानने को तैयार नहीं. सही भी है क्योंकि यह बदमाशी और मासूमियत ही है जो उसे 12 का बनाये हुए है... मैं उसकी बात थोडा कम ध्यान से सुना करता हूँ क्योंकि उस वक्त भी मैं उसे दुआएं देता रहता हूँ... वो जब भी ओए होय होय होय होय बोलती है तो उसके होंठ गोल हो जाते हैं और मुझे बेतहाशा अपनी गर्लफ्रेंड का सिगरेट पीकर उसका धुंआ मेरे मुंह पर फैंकने का दृश्य उभर जाता है. कोमल की आँखें ऊपर की ओर चढ जाती है और वो भी गोल होकर थिरकने लगती है. फिर मुझे लगता है सारी कायनात में कंपन होने लगी है. वो यह बोलते समय हर शब्द पर रूकती है जैसे अपना बोला हुआ सुनना चाहती हो. वो कहती है जब में यह बोलूं तो वातावरण

समानांतर सिनेमा

            आज़ादी के बाद पचास और साथ के दशक में सिनेमा साफ़ तौर पर दो विपरीत धाराओं में बांटता चला गया. एक धारा वह थी जिसमें मुख्य तौर पर प्रधान सिनेमा को स्थान दिया गया. एक धारा वह थी जिसमें मुख्य तौर पर मनोरंजन प्रधान सिनेमा को स्थान दिया गया. इसे मुख्य धारा का सिनेमा कहा गया. दूसरी तरफ कुछ ऐसे फिल्मकार थे जो जिंदगी के यथार्थ को अपनी फिल्मों का विषय बनाते रहे. उनकी फिल्मों को सामानांतर सिनेमा का दर्जा दिया गया. प्रख्यात फिल्म विशेषज्ञ फिरोज रंगूनवाला के मुताबिक, “ अनुभूतिजन्य यथार्थ को सहज मानवीयता और प्रकट लचात्मकता के साथ रजत पथ पर रूपायित करने वाले निर्देशकों में विमलराय का नाम अग्रिम पंग्क्ति में है ” . युद्धोत्तर काल में नवयथार्थ से प्रेरित होकर उन्होंने दो बीघा ज़मीन का निर्माण किया, जिसने बेहद हलचल मचाई. बाद में उन्होंने ‘ बिराज बहू ’ , ‘ देवदास ’ , ‘ सुजाता ’ और ‘ बंदिनी ’ जैसी संवेदनशील फिल्में बनायीं . ‘ दो बीघा ज़मीन ’ को देख कर एक अमेरिकी आलोचक ने कहा था “ इस राष्ट्र का एक फिल्मकार अपने देश को आर्थिक विकास को इस क्रूर और निराश दृष्टि से देखता है, यह बड़ी अजीब बात

... is not responding. Please dial after sometime

फिर से शाम होने को आई ... और उसने अब तक फोन नहीं किया.. कहीं कोई पता नहीं है. चाँद निकल आया है और मेरे पलकें झपकाते-झपकाते यकायक घना अँधेरा डबडबा कर उतर आया है. कहाँ ??? हाँ दोनों तरफ. चांद ऐसे निकला है जैसे आकाश ने टीका लगाकर फिर मिटा दिया हो... एक मिटी और छुटी सी निशान बांकी हैं पर मैं इसी उधेड़बुन में हूँ कि उसने फोन क्यों नहीं उठाया ? हाँ उसने फोन क्यों नहीं उठाया ? बात तो छोटी सी है मगर उसने फोन क्यों नहीं उठाया ? आखिर  सीन क्या है बॉस... उसके मन में क्या है ? वह चाहती तो यह भी कह सकती थी कि बाद में बात करती हूँ,  अभी बिजी हूँ या फिर अगर मुझसे कोई समस्या थी तो कहना चाहिए था उसको. वो अगर मुझसे बात नहीं करना चाहती थी तो उसे यह बात भी फोन उठाकर कह देनी चाहिए थी लेकिन उसने मेरा फोन नहीं उठाया. दैटस् ईट. उसने परसों भी मेरा फोन नहीं उठाया था. पिछले शनिवार को भी नहीं, आमवस्या को भी नहीं और एक महीने पहले एकादशी को भी नहीं. आखिर बात क्या है ? उसने मेरा फोन क्यों नहीं उठाया ? अह! हो सकता है वो अपने बच्चे को ढूध पिला रही हो या फिर बाज़ार में सब्जी खरीद रही हो , बाथरूम में हो या अपने

सिनेमा में ध्वनि का आगमन

मूक सिनेमा के  दौर  में भी फिल्मों की आशातीत सफलता से उत्साहित होकर कुछ कल्पनाशील लोग सिनेमा को आवाज़ देने के प्रयासों में जुट गए थे. 1930 के आसपास सिनेमा में ध्वनि जोड़ने के प्रयास होने लगे हालाँकि तब यह एक अत्यंत महंगा सौदा था. मुंबई में आर्देशिर ईरानी की इम्पीरियल फिल्म कम्पनी और कलकत्ता में जमशेदजी मदन का मदन थियेटर्स बोलती फिल्म बनाने की कोशिश में जी-जान से जुटा था. पहली कामयाबी मिली आर्देशिर ईरानी को, जिन्होंने देश की प्रथम सवाक फिल्म ‘ आलमआरा ’ बनायीं. 14 मार्च, 1931 को मुंबई के मैजिस्टिक सिनेमाघर में ‘ आलमआरा ’ का प्रदर्शन किया गया. मास्टर विट्ठल, जुबैदा और पृथ्वी राज कपूर इस फिल्म के मुख्य कलाकार थे. निर्देशन में आर्देशिर ईरानी के सहयोगी थे – रुस्तम भरुचा, पेसी करानी और मोटी गिडवानी. 1932 में ही इम्पीरियल फिल्म कम्पनी ने ‘ आलमआरा ’ के बाद चार और सवाक फिल्मों का निर्माण किया था. उधर कलकत्ता में मदन थियेटर भी सवाक फिल्मों के प्रदर्शन में कामयाब हुआ. मदन थियेटर की ‘ जमाई षष्ठी ’ दूसरी ऐसी सवाक फिल्म है जो ‘ आलमआरा ’ के बाद प्रदर्शित हुई थी. 1932 में मदन थियेटर्स ने चौबीस

रात के पिछले पहर रोज़ जगाती है हमें

दादी,  मेरे पास दारु पीने को कितने बहाने हैं ! आज शाम उदास है इसलिए पी लेता हूँ, आज 'एलियन'  बहुत याद आ रही है इसलिए पी रहा हूँ, आज नौकरी नहीं मिली इसलिए... तो आज तुम मेरे साथ नहीं हो इसलिए... अब तो दिल करता है अपना ऊपर ब्लेड ही चला लूँ  और अपना ही खून पीउं, वैसे भी इतने दिनों में खून शराब में तब्दील नहीं हुई होगी क्या ?   नशे में जब माथा घूमता है तो लगता है पूरा शहर मेरे साथ घूम रहा है... सारी सृष्टि मेरे साथ नाच रही है.  जिस्म के अन्दर जो तट है उसके वहां मजधार से आती कितने सुनामी हैं... यह आती हैं और बसे-बसाये सभी झोपड़ियों को तहस-नहस कर देती हैं... दादी, लगता है जैसे यह धोबी है और मुझे कपडे जैसे पटक-पटक के धो रही है तभी इतना बेरंग हुआ हूँ कि अब कोई रंग मुझ पर नहीं चढ़ता...  ये बेरंगी उसी मजधार से आई है.  हाँ - हाँ ! वही मजधार जहाँ उसने मुझे छोड़ा था. कोई कितना नशे में है यह उसने पैर के अंगूठे पर खड़े रह कर कांपने से सिखलाया था...  अभी बीती सर्दी में मैं लिहाफ ओढ़कर लोन में नंगे पाँव चलता था... मस्जिद की सीढियाँ अभी भी मैं उन्ही कांपते पैरों से अपराधी की तरह चढ़ता

मूक फिल्में और सेंसरशिप

सन 1917 तक सेंसरशिप जैसी कोई व्यवस्था नहीं थी. कौन सी फिल्म प्रदर्शनयोग्य है, कौन सी नहीं, यह तय करने का अधिकार पुलिस अफसरों को होता था. आम तौर पर वे फ़िल्में आसानी से प्रदर्शन कि इजाजत दे देते थे, जब तक कि राजनीतिक लिहाज़ से कोई आपत्तिजनक  बात किसी फिल्म में न हो. होलीवुड के असर के कारण उन्ही दिनों मूक फिल्मों के दौड में भी चुंबन, आलिंगन और प्रणय के दृश्य फिल्मों में रखे जाते थे. उस ज़माने की एक फिल्म में ललिता पवार को बेझिझक नायक के होंठो को चूमते देखा जा सकता है. न तो दर्शकों को और ना ही नेताओं को ऐसे दृश्यों में नैतिक दृष्टि से कुछ आपत्तिजनक लगता था. फिल्मों को सिर्फ मनोरंजन का माध्यम समझते हुए ऐसे दृश्यों को सहजता से ही लिया जाता था.  मगर 1917 में ब्रिटिश हुकूमत ने ब्रिटेन का सेंसरशिप अधिनियम हमारे यहाँ भी लागू कर दिया. इस अधिनियम को लागू करने के पीछे मुख्य मकसद भारत के अर्धशिक्षित लोगों के सामने पश्चिमी सभ्यता के गलत तस्वीर पेश करने वाली अमेरिकी फिल्मों पर प्रतिबन्ध लगाना था. भारत के फिल्मकारों ने सेंसरशिप लागू करने का कड़ा विरोध भी किया, क्योंकि सेंसरशिप में भी भेदभाव बरता ज

चेक एंड मेट

गतांक से आगे... अपने घर का ख्याल करो, एकलौते हो तुम कहा ना “पत्ते मत फेंकिये”... क्या सवार हुआ है तुमपर ? अक्ल आ गयी है अच्छा, तो हम लोग सब बेअक्ल हैं ? नहीं, पर नजरिया अलग हो चुका है हमारा यह सब तुम्हारे किताबों की देन है, कोर्स की किताबों से ज्यादा तुम इधर-उधर की किताब पढते हो... क्या आश्चर्य की बात नहीं है की पढ़ना और जीना दो अलग-अलग चीजें हैं, हमने इसमें भी अपनी मक्कारी मिला रखी है, मैं इधर उधर की नहीं, लेलिन की, भगत सिंह की... तो साहेबजादे के नंबर इसलिए कम आते हैं ? कोर्स की किताबों में क्या है ? कायरता के गुणसूत्र हैं वहाँ.... क्या कह रहे हो ? वहाँ स्वस्थ जीवन शैली के तरीके हैं, एक सभ्य- शिक्षित समाज है, सपना है, तरक्की है, समानता है, सामजिक न्या... मार्केटिंग जुबान मत बोलिए, दिख रहा है सामाजिक न्याय, रख लीजिए इसे झोले में, रात में बर्गर के साथ खाइएगा, आई पी एल देखते हुए.... तुम्हारे मन में क्या है ? मुझसे संतोष कर लीजिए (अवाक् होकर) क्यों ? हम दोनों एक दूसरे के लायक नहीं हैं ? फिर ? फिर क्या ? संतोष कर लीजिए मुझ से, हमेशा के लिए इसी दिन के लिए पैदा किया था ?