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Showing posts from February, 2010

गंगा-जमुनी सभ्यता

सोहर क्या था - अलहा मियां हमरे भैया का दियो नन्दलाल। ऐ मेरे अल्लाह! मेरे भाई को भगवान कृश्ण जैसा बेटा दे। अब ये मुसलमान घराने का गाना है। -आनन्द भवजे मील बैंठी... आरे लगाये मनावै - हजरत बीबी कह रही हैं कि अली साहब नहीं आये हैं। सुगरा तोते से कह रही हैं और अगर वो कहीं न मिले, ढूंढने जाओ कहीं न मिलें तो वृन्दावन चले जाना। ``है सबमें मची होली अब तुम भी ये चर्चा लो। रखवाओ अबीर ए जां और मय को भी मंगवा लो। हम हाथ में लोटा लें तुम हाथ में लोटिया लो। हम तुमको भिगों डालें तुम हमको भिंगो डालो। होली में यही धूमें लगती हैं बहुत फलियां। है तर्ज जो होली की उस तर्ज हंसो बोलो। जो छेड़ है इस रूत की अब तुम भी वही छेड़ो। हम डालें गुलाल ऐ जां तुम रंग इधर छिड़को हम बोलें अहा हो हो तुम बोलो ओहो ओ हो`` मौलाना हसरत मोहानी वो हैं शायर उर्दू के गजल गो शोहवा में जिनके अहमियत बहुत ज्यादा है यानी इकबाल के बाद जिन लोगों ने गजलें वगैरह लिखी हैं, गजलें लिखीं हैं शायरी की है उनमें बहुत अहम नाम है मौलाना हसरत मोहानी का। एक नया रंग, गलल में दिया है मौलाना ने। तो एक शायर की हैसियत से उनका रूतबा बहुत बदन है। मजहबी आदमी थे

जुगनू

वो मुझसे मिली ना थी पर उसे खो देने का डर मुसलसल बना हुआ था.... वो रास्ता चलते किसी किताब में जिल्द की जगह आइना लगी मिली थी... गाहे बगाहे मैं जिसे पढ़ने के बाद आपका अक्स देख लिया करता था, सर पर धूप थी और इन दिनों पेड़ों के झुरमुट से थोड़ी थोड़ी छांह भी लग जाती थी... "जरा सी फिकर भी तुम्हारे चेहरे को बिगाड़ देते हैं, देखो जरा मैथ के रफ का पन्ना लग रहे हो... हाँ तो ठीक ही तो है, तुम्हारी हथेली भी तो ऐसी ही है...ढेर सारी आरी तिरछी लाइनें पर यह चेहरा नहीं है बेवकूफ क्या सच में ? मेरे वजूद में बिना दस्तक कई चीजें आती हैं... और आती क्या हैं फिर डेरा जमा लेती हैं... मैं जबरदस्ती जब भी तुम्हारी कल्पना करता हूँ कोशिश करता हूँ कि तुम्हारे जुल्फों के पार देख सकूँ... पर उस पार कितना अँधेरा है... ... तुमसे परे जो है. सीढियों पर जब भी उसे अपने आगोश में लेने के लिए बाहों से घेरा डालता, पता नहीं क्यों, हर बार उसे यही लगा जैसे अब चूमने ही वाला हूँ... मैं चाहता था वो मेरी आँखों में देखे और वो चाहती थी उसके होंठों के दरारों से बातें करूँ... मैं जब भी उसके बिना जीने की सोचता तब भी वो प